Tuesday, May 4, 2010

फेंटसी ड्रीम्स....



इम्तेहानों की एक एक घडी सदियों सी लगती है ....जल्दी ही 11th May, 2010 से मेरे एम.कॉम फोर्थ सेमिस्टर के पेपर शुरू हो जायेंगे...और इसमें कोई संदेह नहीं कि यह परीक्षा मेरे करियर का मिल का पत्थर साबित होंगी....समंदर सा सिलेबस और इतना गहरा ज्ञान पढकर मैं तैयार हो रही हू हर दिन उस घडी का सामना करने जब मेरे सामने क्वेश्चन पेपर होंगा और मैं लिख रही हूंगी.....
यह तो हुयी आम बात...लेकिन कई दिनों से एक अजीब दुविधा मे हू....कुछ हैरान तो ज़रा ज़रा परेशान भी....
परेशानी का कारण भी अपने आप मे निराला है कि मुझे खुद पर ही हंसी आ रही है लिखते हुए...लेकिन ऐसा गत चार पांच दिनों से मेरे साथ हो रहा है....
असल मे अजीब अजीब सपने आ रहे है मुझे पिछले कूच दिनों से.....काफी अवसादित महसूस करती हू उन्हें देखकर और फिर सारी रात किताबे लेकर बिना सोये ही बिताती हू.....
कुछ दिनों पहले मैं अपनी पढाई खत्म कर रात एक बजे के करीब सोने चली गयी काफी थक सी गयी थी उस दिन पढ़ पढ़ के....
स्वप्न नंबर 1-
उसी रात मैंने सपने मे खुदको एक भीड़-भाड़ भरी सड़क पर पाया मैं घडी देख रही हू नौ बजे पेपर शुरू होने को है और सवा नौ बजे मैं रास्ते पे खड़ी सोच रही हू कि मेरे सामने जो इमारत है कल तक तो मेरा एक्साम सेंटर यही हुवा करता था...आज ना जाने कहाँ गयाब हो गया?...डर के मारे स्वप्न मे ही मेरी साँसे चल रही है और पसीना भी छूट रहा है....
हडबडाकर नींद से उठी तो मैं सचमुच पसीने से लथपथ थी.....फिर तसल्ली हुयी कि शुक्र है यह महज एक सपना था...
स्वप्न नंबर 2-
दूसरे दिन फिर मैं पढाई खत्म कर ठीक समय पर सो गयी....आज कि रात एक और सिर फिरा सपना आया... मैं अपने क्लास रूम मे बैठी पेपर शुरू होने का इंतज़ार कर रही हू....एक्सामिनर सर पेपर देकर जाते है...और मैं प्रश्न पत्र पर एक नज़र डालती हू.... और जब लिखने के लिए पेन उठाती हू तो पता चलता है कि वक्त खत्म हो गया है अब पेपर नहीं लिख सकते.....
स्वप्न नुम्बर 3-
दो दिनों पहले एक और मिला जुला स्वप्न देखा .......इस बार मैंने देखा कि सुबह नौ बजे के पेपर के लिए मैंने छः बजे का अलाराम लगाया है और मैं इतनी देर तक सोती ही रह गयी हू कि शाम के छः बजे उठी हू...और अब पता चलता है कि आज का पेपर सीधे एक साल बाद ही देना होंगा...मैं फ़ैल हो गयी.....

मेरे शिक्षकों ने मुझे कभी नकारात्मक तरीके से सोचना सिखाया ही नहीं.....और ये ऐसे स्वप्न आते है तो भला कौन निराश ना हो....फिर भी मैं अनदेखा कर के अपनी पढ़ाई पर ध्यान दे रही हू पूरी ताकत से.....

पहले सोचा बड़े भाई साहब से शेयर करू यह बात .....फिर लगा कि वे फ़िक्र करने लगेंगे....उफ्फ्फ!! स्वप्न ही तो है.....मैं भी क्यों टेंशन लू....
कूछ सायकायट्रिस्ट मित्र है जिनके सामने ये दुविधा रखी जनाब कहते है...तुम्हारी नींद पूरी नहीं हो रही है...एक गोली देता हू लिखकर खा कर घोड़े बेचकर सो जाओ....(एक्साम्स के दिनों मे सोऊ कभी नहीं..)...

फिर अपनी सबसे विश्वसनीय और मार्गदर्शक सहेली रीया दीदी के सामने ये बात रखी तो उन्होंने कहा कि यह शिकायत अक्सर देखि जाती है और यह 60% तक common है....किसी नए काम को शूरु करने से पूर्व या किसी बड़े इम्तिहान मे जाने से पूर्व अक्सर ऐसा कईयों के साथ होता ही है....

लेकिन मेरा सवाल तो सवाल ही बनकर रह गया ना....आखिर क्यों आते है यह फेंटसी सपने....इन्हें और कोई काम धाम नहीं है क्या....मुझे ही क्यों आते है भला???....
grrrrrrrrrrr...........

Monday, March 29, 2010

~मन~

"इंसान और पुर्जों (machine) में बस इतना ही तो फर्क होता है .........
कि इंसान के पास ज़हन होता है....
उड़ भी गए अगर दूजे आसमां पर .....
फिर भी अटका कही किसीमे किसीका मन होता है...."

Sunday, March 21, 2010

~“बुढापा हिंदी का”~

एक दिन रेलवे स्टेशन पर,

एक बच्चे ने देखा एक बन्दर |

बच्चा बोला मम्मी देखो बन्दर

उसपर चीखकर बोली मम्मी,

Monkey कहो नाकि बन्दर |.


अजीब बात है,

शेर भी कहने लगा Hi !

नानी की कहानी में,

मैं समझ गयी,

हिंदी हो चली बूढी अपनी जवानी में |


पीछे से आई विदेशी भाषी बिल्ली,

और उसने नाक हिंदी का नोचा |

इतनी सारी भाषाओँ ने भला,

राष्ट्रभाषा को ही क्यों दबोचा |

किसीने नाक में बोलना शुरू किया,

और टांग हिंदी की तोड़ी|


उधर किसीने 2-3 बोलियों का मिक्सर

with hindi बनाकर इसकी बाह मरोड़ी |

आ गया इन्कलाब भारतीय जुबानी में

हिंदी हो चली बूढी अपनी जवानी में|


एक दिन महाविद्यालय के चौराहे पर

एक नया प्रकार देखने को मिला|

तरीका था दादागिरी भरा

याने की ढीला |

पता चला बादमे

लड़कों ने आविष्कार है किया

यह है स्टाइल बम्बइयाँ |


एक दिन वाचनालय में मैंने पाया

किताबों की ढेर में हिंदी एक और खड़ी है|

मेरे डॉक्टर मित्र ने बताया

हिंदी बीमार पड़ी है |

उसे हो गयी है सर्दी,

क्यूंकि उसे बोलने वालों की कम जो हो गयी गर्दी |

झंडे तक रह गयी सिमित शुद्ध हिंदी राजधानी में,

हिंदी हो चली बूढी अपनी जवानी में |


यदि कबीर समय यन्त्र में बैठकर आज आ जाते

तो वे पशु भी चराते और सूत भी कातते |

पर गाना भूल जाते |

और अगर तुलसीदास आ जाते

तो अपनी ही रचना समझने बैठ जाते |

बिन हिंदी जाने ही ज्ञान आने लगा ज्ञानी में

हिंदी हो चली बूढी अपनी जवानी में |


बुजुर्ग तो चले गए पीछे ये आदेश छोड़

चले दुनिया जिस राह से चल बेटे उसी ओर

सोचती हू क्युना जोश में मैं भी कह दू ??!!

I am a “Hindu”

लग गयी दिमक हाय!

महान हिंदी की महानी में

हिंदी हो चली बूढी अपनी जवानी में.............

8th September, 2002.